मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

स्लम-बस्ती में गणतंत्र-दिवस समारोह


भारत की आजादी के ६४ वर्ष और गणतंत्रता के ६१ वर्ष बाद भी लोगों की स्थिति अभी तक नहीं बदली है। आज भी स्लम बस्तियों में रहनेवाले लोगों और उनके बच्चों के लिए आजादी और गणतंत्रता का कोई मोल नहीं है। क्योंकि
  उन्हें प्रति-दिन के समान हीं मजदूरी और मेहनत करना पड़ता है। उन्हें यह पता नहीं कि आजादी और गुलामी है क्या? उन्हें नहीं मालूम कि एक गुलाम देश और आजाद देश में क्या फर्क होता है? शायद उन्हें यह भी नहीं पता कि खुशियाँ क्या होती है ? क्योंकि खुशियों और छुट्टियों का आनंद तब आती हैं, जब व्यक्ति का पेट भरा होता हैं । उन्हें तो यह भी नहीं मालूम कि कल भोजन मिलेगी भी या नहीं। उनके नाम पर अनेक लोग जी रहे हैं और मस्त हो कर गा रहे हैं- " जन-गण-मन अधिनायक जय हे ! भारत भाग्य-विधाता। " परन्तु उन बेचारों का भाग्य-विधाता कब आएगा, ये तो शायद भाग्य-विधाता हीं जानता होगा?
मुझे और मेरे सहकर्मी व 'एन.जी.ओ. अलख-कामेश्वर मेमोरियल संस्थान के सचिव आर.के.पाण्डेय' को स्लम बस्तियों के बच्चों द्वारा आयोजित गणतंत्र-दिवस समारोह में बुलाया गया तो पता चला कि वहां के कुछ बच्चें दस-दस रूपया चंदा कर गणतंत्र दिवस मना रहे हैं। यह देखकर हमें ख़ुशी हुई। ऐसा लगा की भारत माता के प्रति इन बच्चों के मन में विश्वाश और श्रद्धा के दीप गरीबी और विवशता रूपी हवा के झोकों के थपेड़े खाते हुए भी तिरंगे को रोशनी देने के लिए लालायित हैं। हमने देखा कि वें गणतंत्रता का महत्व नहीं जानतें पर अपने महापुरुषों का नाम और राष्ट्रीय झंडें को सम्मान देना जानतें हैं, जो दर्द और अभाव में भी हँसना, गाना, और नाचना जानते हैं. वे भला इस अवसर को कैसे छोड़ सकते थें। उनहोंने अपना-अपना कार्यक्रम आरंभ किया। उसी बीच मैंने देखा कि कुछ बच्चें माथे पर उपलों से भरी बोरियां ले कर बेचने आ गए। मुझे यह देख कर दुःख हुआ कि क्या भारत के इन बच्चों को गुलामी और गरीबी से मुक्ति नहीं मिलेगी। क्या सरकारें केवल बाल-मजदूरी मुक्ति और स्कुल चलो का नारा हीं लगाती रहेंगीं ? क्या संविधान केवल कानून की किताबों में सिमट कर रह जाएगी ? वो कभी धरातल पर नहीं उतर पायेगी ? क्या गाँधी, नेहरू, सुभाष और अनंत शहीदों का सपना यही था ? क्या उनकी अभिलाषा यहीं थी की भारत का भला हो या न हो कम-से-कम हजारों-लाखों वर्ष बाद भी लोग राष्ट्रिय अवसरों पर उनके नाम तो लेते हीं रहेंगें ? काश! वे ऐसा सोचते तो एक तरह से अच्छा ही होता क्योंकि हम न आजाद होतें और न हम आजाद देश के सपने दिखातें। कम-से-कम इतना तो संतोष अवश्य होता कि हम गुलाम हैं। इसलिए हमें सपने देखने का कोई अधिकार नहीं है. पर उनका अपना स्वार्थ था कि उन्होंने हमें आजादी दिला दी। और हम ग़रीब और लाचार जनता को छोड़ दिया, आज के निःश्वार्थ नेताओं और अधिकारियों के हाथों में। जो अपना सब कुछ लुटा देने केलिए हमेशा तैयार होते हैं। जिन्हें न बदनामी की चिंता होती है और न अपमान का परवाह होता है। उन्हें तो बस चिंता होती है अपने और अपने ..............
खैर, जो हुआ सो हुआ, अब वक्त बदल चूका है, देश का युवा-शक्ति जग रहा है और तैयार हो रहा है, एक ऐसे आन्दोलन के लिए जो छोटे बस्तियों और गाँवो से आरम्भ होगी। इस आन्दोलन में न तो हिंसा होगी और न तख्ता-पलट होगा। इस आन्दोलन में यदि कुछ बदलेगी तो वह होगी, लोगों की मानसिकता। जिसे बदलने के लिए जागरूकता आन्दोलन चलाने की परम आवश्कता है। इस आन्दोलन का पहला कदम होना चाहिए- सरकारी योजनाओं की पूरी जानकारी आमलोगों तक पहुँचाना तथा सभी वर्गों के लोगों को शिक्षित करना, क्योंकि लगभग 80% लोगों को योजनाओं की जानकारी होती हीं नहीं है। फलस्वरूप सारी राशी गैर-जरुरतमंदों में बाँट जाती हैं या उसके पैसे स्वार्थी तत्वों द्वारा निकाल ली जाती है। हमारे लोक-तंत्र का चौथा स्तम्भ या तो बिक जाता है या डर से गुप-चुप तमाशा देखता रहता है। यदि योजनाओं की पूरी जानकारी लोगों को दिए जाएँ तो अवश्य गरीबी और भुखमरी मिट सकती है। इस आन्दोलन में आवश्यकता है- ईमानदार और देश-भक्त सपूतों की, जरुरत है मिडियाकर्मियों की और जरुरत है, उनलोगों की जो तन, मन और धन द्वारा इस आन्दोलन में भाग लेना चाहते हैं. क्योंकि कोई भी आन्दोलन अकेला नहीं चलाया जा सकता। केवल बड़ी.-बड़ी बाते करने से भी सिस्टम नहीं बदल सकता। अतः मेरा उद्धेश ब्लॉग के माध्यम से समान विचारधारा के लोगों को एक मंच पर ला कर आन्दोलन को सफल बनाना हैं।
                                                                                      जय हिंद!





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